एक किस्म की कायरता बुन ली है तुमने,
अपने विचारों में,
अपनी धारणाओं में।
स्वीकृति के भूखे इन विचारों में,
नया सा कुछ भी नहीं।
न यह क्रांति ला सकते हैं,
न समय पर अपना चिन्ह ही छोड़ सकते हैं।
ये सिर्फ चाय की टपरी पर बैठकर,
चर्चा-परिचर्चा कर सकते हैं,
सबसे सहमत हो सकते हैं,
बहती हवा के रुख में बह सकते हैं।
लेकिन अगर कोई सच्चा संकल्प लेना हो,
या किसी जज़्बे का भार उठाना हो,
तो इनके पांव कांपने लगते हैं।
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