इक्कीस फ़रवरी का टिकट,
जेब में छुट्टे पैसे खोजना.
एक गरम कप कॉफ़ी में,
एक हज़ार बातें घोलना.
पल-पल की पाबंदी है,
क्या बात कहें, क्या जानें दें?
और उसपर भी ये तय करना,
समझायें या समझानें दें?
अब भारी मन से चढ़ तो गए,
जाने की भी मजबूरी है.
तुम रुक जाओ, हम साथ चलें,
कितनी लम्बी ये दूरी है.
ये किस्सा सुन शायद दुनिया,
हंस-हंस कर पागल हो जाए.
रोने से फुर्सत कहाँ हमें,
है गला रुंधा और सिर भारी,
वरना उनको समझाते हम.
हर प्लेटफ़ॉर्म पर बिछड़-बिछड़,
फिर दूजे पे मिल जाते हम.
How does one celebrate seven years of not running out of words to say to each other? By holding hands over a humble cup of coffee on the railway station as we continue talking. At railway stations all over the country, we have had inconsolable, heart-breaking farewells; only to poetically reunite on similar railway stations at a later date. Movie scripts can only aspire to match this sort of drama. (The comic relief we provide to the general public is a bonus feature.) Darling, what other love can I aspire to? You have set the benchmark too high.